बड़े घर की बेटी

इस कहानी में 'मुंशी प्रेमचंद' ने संयुक्त परिवारों में होने वाली समस्याओं का चित्रण किया है। उन्होंने इस कहानी के माध्यम से यह बताने का प्रयत्न किया है कि संयुक्त परिवारों में जरा-जरा सी बात पर कलह हो जाती है, बात का बतंगड़ बन जाता है और फिर आपसी समझ-बूझ से बिगड़ती बात को संभाल भी लिया जाता है।

Pramod Devireddy
Premchand
May 16, 202117 min read

(1)

बेनी माधव सिंह मौज़ा गौरीपुर के ज़मींदार नंबरदार थे। उनके बुज़ुर्ग किसी ज़माने में बड़े साहिब-ए-सर्वत थे। पुख़्ता तालाब और मंदिर उन्हीं की यादगार थी। कहते हैं इस दरवाज़े पर पहले हाथी झूमता था। उस हाथी का मौजूदा नेम-उल-बदल एक बूढ़ी भैंस थी जिसके बदन पर गोश्त तो न था मगर शायद दूध बहुत देती थी। क्यूँकि हर वक़्त एक न एक आदमी हाँडी लिए उसके सर पर सवार रहता था। बेनी माधव सिंह ने निस्फ़ से ज़ाइद जायदाद वकीलों की नज़्र की और अब उनकी सालाना आमदनी एक हज़ार से ज़ाइद न थी।

ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बड़े का नाम सिरी कंठ सिंह था। उसने एक मुद्दत-ए-दराज़ की जानकाही के बाद बी.ए. की डिग्री हासिल की थी। और अब एक दफ़्तर में नौकर था। छोटा लड़का लाल बिहारी सिंह दोहरे बदन का सजीला जवान था। भरा हुआ चेहरा चौड़ा सीना भैंस का दो सेर ताज़ा दूध का नाश्ता कर जाता था। सिरी कंठ उससे बिल्कुल मुतज़ाद थे। इन ज़ाहिरी ख़ूबियों को उन्होंने दो अंग्रेज़ी हुरूफ़ बी.ए. पर क़ुर्बान कर दिया था। इन्हीं दो हर्फ़ों ने उनके सीने की कुशादगी, क़द की बुलंदी, चेहरे की चमक, सब हज़्म कर ली थी। ये हज़रत अब अपना वक़्त-ए-फ़ुर्सत तिब के मुताले में सर्फ़ करते थे।आयुर्वेदिक दवाओं पर ज़्यादा अक़ीदा था। शाम सवेरे उनके कमरे से अक्सर खरल की ख़ुश-गवार पैहम सदाएँ सुनाई दिया करती थीं। लाहौर और कलकत्ता के वैदों से बहुत ख़त-ओ-किताबत रहती थी।

सिरी कंठ इस अंग्रेज़ी डिग्री के बावजूद अंग्रेज़ी मुआशरत के बहुत मद्दाह न थे। बल्कि इसके बर-अक्स वो अक्सर बड़ी शद्द-ओ-मद से उसकी मज़म्मत किया करते थे। इसी वज्ह से गाँव में उनकी बड़ी इज़्ज़त थी। दसहरे के दिनों में वो बड़े जोश से राम लीला में शरीक होते और ख़ुद हर-रोज़ कोई न कोई रूप भरते, उन्हीं की ज़ात से गौरीपुर में राम लीला का वजूद हुआ। पुराने रस्म-ओ-रिवाज का उनसे ज़्यादा पुर-जोश वकील मुश्किल से होगा। ख़ुसूसन मुशतर्का ख़ानदान के वो ज़बरदस्त हामी थे। आज कल बहुओं को अपने कुन्बे के साथ मिल-जुल कर रहने में जो वहशत होती है, उसे वो मुल्क और क़ौम के लिए फ़ाल-ए-बद ख़याल करते थे। यही वज्ह थी कि गाँव की बहुएँ उन्हें मक़बूलियत की निगाह से न देखती थीं, बाज़-बाज़ शरीफ़-ज़ादियाँ तो उन्हें अपना दुश्मन समझतीं। ख़ुद उन ही की बीवी उनसे इस मसअले पर अक्सर ज़ोर-शोर से बहस करती थीं। मगर इस वज्ह से नहीं कि उसे अपने सास-ससुरे, देवर-जेठ से नफ़रत थी। बल्कि उसका ख़याल था कि अगर ग़म खाने और तरह देने पर भी कुन्बे के साथ निबाह न हो सके तो आए दिन की तकरार से ज़िंदगी तल्ख़ करने के बजाए यही बेहतर है कि अपनी खिचड़ी अलग पकाई जाए।

आनंदी एक बड़े ऊँचे ख़ानदान की लड़की थी। उसके बाप एक छोटी सी रियासत के तअल्लुक़ेदार थे। आलीशान महल। एक हाथी, तीन घोड़े, पाँच वर्दी-पोश सिपाही। फ़िटन, बहलियाँ, शिकारी कुत्ते, बाज़, बहरी, शिकरे, जर्रे, फ़र्श-फ़रोश शीशा-आलात, ऑनरेरी मजिस्ट्रेटी और क़र्ज़ जो एक मुअ’ज़्ज़ज़ तअल्लुक़ेदार के लवाज़िम हैं। वो उनसे बहरा-वर थे। भूप सिंह नाम था। फ़राख़-दिल, हौसला-मंद आदमी थे, मगर क़िस्मत की ख़ूबी, लड़का एक भी न था। सात लड़कियाँ ही लड़कियाँ हुईं और सातों ज़िंदा रहीं। अपने बराबर या ज़्यादा ऊँचे ख़ानदान में उनकी शादी करना अपनी रियासत को मिट्टी में मिलाना था। पहले जोश में उन्होंने तीन शादियाँ दिल खोल कर कीं। मगर जब पंद्रह-बीस हज़ार के मक़रूज़ हो गए तो आँखें खुलीं। हाथ पैर पीट लिए। आनंदी चौथी लड़की थी। मगर अपनी सब बहनों से ज़्यादा हसीन और नेक, इसी वज्ह से ठाकुर भूप सिंह उसे बहुत प्यार करते थे। हसीन बच्चे को शायद उसके माँ-बाप भी ज़्यादा प्यार करते हैं। ठाकुर साहब बड़े पस-ओ-पेश में थे कि इसकी शादी कहाँ करें। न तो यही चाहते थे कि क़र्ज़ का बोझ बढ़े और न यही मंज़ूर था कि उसे अपने आपको बद-क़िस्मत समझने का मौक़ा मिले। एक रोज़ सिरी कंठ उनके पास किसी चंदे के लिए रुपया माँगने आए। शायद नागरी प्रचार का चंदा था। भूप सिंह उनके तौर-ओ-तरीक़ पर रीझ गए, खींच-तान कर ज़ाइचे मिलाए गए। और शादी धूम-धाम से हो गई।

आनंदी देवी अपने नए घर में आईं तो यहाँ का रंग-ढंग कुछ और ही देखा। जिन दिलचस्पियों और तफ़रीहों की वो बचपन से आदी थी, उनका यहाँ वजूद भी न था। हाथी घोड़ों का तो ज़िक्र क्या, कोई सजी हुई ख़ूबसूरत बहली भी न थी। रेशमी स्लीपर साथ लाई थीं, मगर यहाँ बाग़ कहाँ मकान में खिड़कियाँ तक न थीं। न ज़मीन पर फ़र्श न दीवारों पर तस्वीरें, ये एक सीधा-सादा दहक़ानी मकान था। आनंदी ने थोड़े ही दिनों में इन तब्दीलियों से अपने तईं इस क़दर मानूस बना लिया, गोया उसने तकल्लुफ़ात कभी देखे ही नहीं।

(2)

एक रोज़ दोपहर के वक़्त लाल बिहारी सिंह दो मुरग़ाबियाँ लिए हुए आए और भावज से कहा। जल्दी से गोश्त पका दो। मुझे भूक लगा है। आनंदी खाना पका कर उनकी मुंतज़िर बैठी थी। गोश्त पकाने बैठी मगर हाँडी में देखा तो घी पाव भर से ज़्यादा न था। बड़े घर की बेटी। किफ़ायत-शिआरी का सबक़ अभी अच्छी तरह न पढ़ी थी। उसने सब घी गोश्त में डाल दिया। लाल बिहारी सिंह खाने बैठे तो दाल में घी न था। “दाल में घी क्यूँ नहीं छोड़ा?”

आनंदी ने कहा, “घी सब गोश्त में पड़ गया।”

लाल बिहारी, “अभी परसों घी आया है। इस क़दर जल्द उठ गया।”

आनंदी, “आज तो कुल पाव भर था। वो मैंने गोश्त में डाल दिया।”

जिस तरह सूखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है। उसी तरह भूक से बावला इंसान ज़रा-ज़रा बात पर तुनक जाता है। लाल बिहारी सिंह को भावज की ये ज़बान-दराज़ी बहुत बुरी मालूम हुई। तीखा हो कर बोला। “मैके में तो चाहे घी की नदी बहती हो।”

औरत गालियाँ सहती है। मार सहती है, मगर मैके की निंदा उससे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह फेर कर बोली, “हाथी मरा भी तो नौ लाख का। वहाँ इतना घी रोज़ नाई-कहार खा जाते हैं।”

लाल बिहारी जल गया। थाली उठा कर पटक दी। और बोला, “जी चाहता है कि तालू से ज़बान खींच ले।”

आनंदी को भी ग़ुस्सा आ गया। चेहरा सुर्ख़ हो गया। बोली, “वो होते तो आज इसका मज़ा चखा देते।”

अब नौजवान उजड्ड ठाकुर से ज़ब्त न हो सका। उसकी बीवी एक मामूली ज़मींदार की बेटी थी। जब जी चाहता था उस पर हाथ साफ़ कर लिया करता था। खड़ाऊँ उठा कर आनंदी की तरफ़ ज़ोर से फेंकी और बोला, “जिसके गुमान पर बोली हो। उसे भी देखूँगा और तुम्हें भी।”

आनंदी ने हाथ से खड़ाऊँ रोकी, सर बच गया। मगर उँगली में सख़्त चोट आई। ग़ुस्से के मारे हवा के हिलते हुए पत्ते की तरह काँपती हुई अपने कमरे में आकर खड़ी हो गई। औरत का ज़ोर और हौसला, ग़ुरूर-ओ-इज़्ज़त शौहर की ज़ात से है, उसे शौहर ही की ताक़त और हिम्मत का घमंड होता है। आनंदी ख़ून का घूँट पी कर रह गई।

(3)

सिरी कंठ सिंह हर शंबा को अपने मकान पर आया करते थे। जुमेरात का ये वाक़िआ' था। दो दिन तक आनंदी ने न कुछ खाया न पिया। उनकी राह देखती रही। आख़िर शंबा को हस्ब-ए-मामूल शाम के वक़्त वो आए और बाहर बैठ कर कुछ मुल्की-ओ-माली ख़बरें, कुछ नए मुक़द्दमात की तज्वीज़ें और फ़ैसले बयान करने लगे। और सिलसिला-ए-तक़रीर दस बजे रात तक जारी रहा। दो-तीन घंटे आनंदी ने बे-इंतिहा इज़्तिराब के आ'लम में काटे। बारे खाने का वक़्त आया। पंचायत उठी। जब तख़्लिया हुआ तो लाल बिहारी ने कहा, “भैया आप ज़रा घर में समझा दीजिएगा कि ज़बान सँभाल कर बात-चीत किया करें। वर्ना नाहक़ एक दिन ख़ून हो जाएगा।”

बेनी माधव सिंह ने शहादत दी, “बहू-बेटियों की ये आदत अच्छी नहीं कि मर्दों के मुँह लगें।”

लाल बिहारी, “वो बड़े घर की बेटी हैं तो हम लोग भी कोई कुर्मी-कहार नहीं हैं।”

सिरी कंठ, “आख़िर बात क्या हुई?”

लाल बिहारी, कुछ भी नहीं, “यूँ ही आप ही आप उलझ पड़ीं, मैके के सामने हम लोगों को तो कुछ समझती ही नहीं।”

सिरी कंठ खा पी कर आनंदी के पास गए। वो भी भरी बैठी थी। और ये हज़रत भी कुछ तीखे थे।

आनंदी ने पूछा, “मिज़ाज तो अच्छा है?”

सिरीकंठ बोले, ”बहुत अच्छा है। ये आजकल तुमने घर में क्या तूफ़ान मचा रक्खा है?”

आनंदी के तेवरों पर बल पड़ गए। और झुँझलाहट के मारे बदन में पसीना आ गया। बोली, “जिसने तुमसे ये आग लगाई है, उसे पाऊँ तो मुँह झुलस दूँ।”

सिरी कंठ, “इस क़दर तेज़ क्यूँ होती हो, कुछ बात तो कहो।”

आनंदी, “क्या कहूँ। क़िस्मत की ख़ूबी है। वर्ना एक गँवार लौंडा जिसे चपरासी-गिरी करने की भी तमीज़ नहीं, मुझे खड़ाऊँ से मार कर यूँ न अकड़ता फिरता। बोटियाँ नुचवा लेती। इस पर तुम पूछते हो कि घर में तूफ़ान क्यूँ मचा रक्खा है।”

सिरी कंठ, “आख़िर कुछ कैफ़ियत तो बयान करो। मुझे तो कुछ मालूम ही नहीं।”

आनंदी, “परसों तुम्हारे लाडले भाई ने मुझे गोश्त पकाने को कहा। घी पाव भर से कुछ ज़्यादा था। मैंने सब गोश्त में डाल दिया। जब खाने बैठा तो कहने लगा दाल में घी क्यूँ नहीं। बस उसी पर मेरे मैके को बुरा-भला कहने लगा। मुझसे बर्दाश्त न हो सका। बोली कि वहाँ इतना घी नाई-कहार खा जाते हैं और किसी को ख़बर भी नहीं होती। बस इतनी सी बात पर उस ज़ालिम ने मुझे खड़ाऊँ फेंक मारी। अगर हाथ से न रोकती तो सर फट जाता। उससे पूछो कि मैंने जो कुछ कहा है सच है या झूट?”

सिरी कंठ की आँखें लाल हो गईं। बोले, “यहाँ तक नौबत पहुँच गई। ये लौंडा तो बड़ा शरीर निकला।”

आनंदी रोने लगी। जैसे औरतों का क़ायदा है। क्यूँकि आँसू उनकी पल्कों पर रहता है। औरत के आँसू मर्द के ग़ुस्से पर रोग़न का काम करते हैं। सिरी कंठ के मिज़ाज में तहम्मुल बहुत था। उन्हें शायद कभी ग़ुस्सा आया ही न था। मगर आनंदी के आँसूओं ने आज ज़हरीली शराब का काम किया। रात-भर करवटें बदलते रहे। सवेरा होते ही अपने बाप के पास जा कर बोले, “दादा अब मेरा निबाह इस घर में न होगा।”

ये और इस मा'नी के दूसरे जुमले ज़बान से निकालने के लिए सिरी कंठ सिंह ने अपने कई हम-जोलियों को बारहा आड़े हाथों लिया था। जब उनका कोई दोस्त उनसे ऐसी बातें कहता तो वो मज़हका उड़ाते और कहते, तुम बीवियों के ग़ुलाम हो। उन्हें क़ाबू में रखने के बजाए ख़ुद उनके क़ाबू में हो जाते हो। मगर हिन्दू मुश्तरका ख़ानदान का यह पुर-जोश वकील आज अपने बाप से कह रहा था, “दादा! अब मेरा निबाह इस घर में न होगा।” नासेह की ज़बान उसी वक़्त तक चलती है। जब तक वो इश्क़ के करिश्मों से बे-ख़बर रहता है। आज़माइश के बीच में आ कर ज़ब्त और इल्म रुख़्सत हो जाते हैं।

बेनी माधव सिंह घबरा कर उठ बैठे और बोले, “क्यूँ।”

सिरी कंठ, “इसलिए कि मुझे भी अपनी इज़्ज़त का कुछ थोड़ा बहुत ख़याल है। आपके घर में अब हट-धर्मी का बर्ताव होता है। जिनको बड़ों का अदब होना चाहिए, वो उनके सर चढ़ते हैं। मैं तो दूसरे का ग़ुलाम ठहरा, घर पर रहता नहीं और यहाँ मेरे पीछे औरतों पर खड़ाऊँ और जूतों की बौछाड़ होती है। कड़ी बात तक मुज़ाइक़ा नहीं, कोई एक की दो कह ले। यहाँ तक मैं ज़ब्त कर सकता हूँ। मगर ये नहीं हो सकता कि मेरे ऊपर लात और घूँसे पड़े और मैं दम न मारूँ।”

बेनी माधव सिंह कुछ जवाब न दे सके। सिरी कंठ हमेशा उनका अदब करते थे। उनके ऐसे तेवर देखकर बूढ़ा ठाकुर ला-जवाब हो गया। सिर्फ़ इतना बोला, “बेटा तुम अक़्ल-मंद हो कर ऐसी बातें करते हो। औरतें इसी तरह घर तबाह कर देती हैं। उनका मिज़ाज बढ़ाना अच्छी बात नहीं।”

सिरी कंठ, “इतना मैं जानता हूँ। आपकी दुआ से ऐसा अहमक़ नहीं हूँ। आप ख़ुद जानते हैं कि इस गाँव के कई ख़ानदानों को मैंने अलहदगी की आफ़तों से बचा दिया है। मगर जिस औरत की इज़्ज़त-ओ-आबरू का मैं ईश्वर के दरबार में ज़िम्मेदार हूँ, उस औरत के साथ ऐसा ज़ालिमाना बरताव मैं नहीं सह सकता। आप यक़ीन मानिए मैं अपने ऊपर बहुत जब्र कर रहा हूँ कि लाल बिहारी की गोशमाली नहीं करता।”

अब बेनी माधव भी गरमाए। ये कुफ़्र ज़्यादा न सुन सके बोले, “लाल बिहारी तुम्हारा भाई है। उससे जब कभी भूल-चूक हो। तुम उसके कान पकड़ो। मगर...”

सिरी कंठ, “लाल बिहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।”

बेनी माधव, “औरत के पीछे।”

सिरी कंठ, “जी नहीं! उसकी गुस्ताख़ी और बे-रहमी के बाइस।”

दोनों आदमी कुछ देर तक ख़ामोश रहे। ठाकुर साहब लड़के का ग़ुस्सा धीमा करना चाहते थे। मगर ये तस्लीम करने को तैयार न थे कि लाल बिहारी से कोई गुस्ताख़ी या बे-रहमी वक़ूअ में आई। इसी अस्ना में कई और आदमी हुक़्क़ा तंबाकू उड़ाने के लिए आ बैठे। कई औरतों ने जब सुना कि सिरी कंठ बीवी के पीछे बाप से आमादा-ए-जंग हैं तो उनका दिल बहुत ख़ुश हुआ और तरफ़ैन की शिकवा-आमेज़ बातें सुनने के लिए उनकी रूहें तड़पने लगीं।

कुछ ऐसे हासिद भी गाँव में थे जो इस ख़ानदान की सलामत-रवी पर दिल ही दिल में जलते थे। सिरी कंठ बाप से दबता था। इसलिए वो ख़तावार है। उसने इतना इल्म हासिल किया। ये भी उसकी ख़ता है। बेनी माधव सिंह बड़े बेटे को बहुत प्यार करते हैं। ये बुरी बात है। वो बिला उसकी सलाह के कोई काम नहीं करते। ये उनकी हिमाक़त है। इन ख़यालात के आदमियों की आज उम्मीदें भर आईं। हुक़्क़ा पीने के बहाने से, कोई लगान की रसीद दिखाने के हीले से आ-आ कर बैठ गए। बेनी माधव सिंह पुराना आदमी था। समझ गया कि आज ये हज़रात फूले नहीं समाते। उसके दिल ने ये फ़ैसला किया कि उन्हें ख़ुश न होने दूँगा। ख़्वाह अपने ऊपर कितना ही जब्र हो। यका-य़क लहजा-ए-तक़रीर नर्म कर के बोले, “बेटा! मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तुम्हारा जो ची चाहे करो। अब तो लड़के से ख़ता हो गई।”

इलहाबाद का नौजवान, झल्लाया हुआ ग्रेजुएट… इस घात को न समझा। अपने डिबेटिंग क्लब में उसने अपनी बात पर अड़ने की आदत सीखी थी। मगर अमली मुबाहिसों के दाँव-पेच से वाक़िफ़ न था। इस मैदान में वो बिल्कुल अनाड़ी निकला। बाप ने जिस मतलब से पहलू बदला था, वहाँ तक उसकी निगाह न पहुँची। बोला, “मैं लाल बिहारी सिंह के साथ अब इस घर में नहीं रह सकता।”

बाप, “बेटा! तुम अक़्लमंद हो और अक़्लमंद आदमी गँवारों की बात पर ध्यान नहीं देता। वो बे-समझ लड़का है, उससे जो कुछ ख़ता हुई है उसे तुम बड़े हो कर मुआफ़ कर दो।”

बेटा, “उसकी ये हरकत मैं हरगिज़ मुआफ़ नहीं कर सकता। या तो वही घर में रहेगा या मैं ही रहूँगा। आपको अगर उससे ज़्यादा मोहब्बत है तो मुझे रुख़्सत कीजिए। मैं अपना बोझ आप उठा लूँगा। अगर मुझे रखना चाहते हो तो उससे कहिए, जहाँ चाहे चला जाए। बस ये मेरा आख़िरी फ़ैसला है।”

लाल बिहारी सिंह दरवाज़े की चौखट पर चुप-चाप खड़ा बड़े भाई की बातें सुन रहा था। वो उनका बहुत अदब करता था। उसे कभी इतनी जुर्रत न हुई थी कि सिरी कंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाए या हुक़्क़ा पी ले या पान खा ले। अपने बाप का भी इतना पास-ओ-लिहाज़ न करता था। सिरी कंठ को भी उससे दिली-मोहब्बत थी। अपने होश में उन्होंने कभी उसे घुड़का तक न था। जब इलहाबाद से आते तो ज़रूर उसके लिए कोई न कोई तोहफ़ा लाते। मुगदर की जोड़ी उन्होंने ही बनवा कर दी थी। पिछले साल जब उसने अपने से डेवढ़े जवान को नाग-पंचमी के दंगल में पछाड़ दिया तो उन्होंने ख़ुश हो कर अखाड़े ही में जा कर उसे गले से लगा लिया था। और पाँच रुपये के पैसे लुटाए थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी जिगर-दोज़ बातें सुनकर लाल बिहारी सिंह को बड़ा मलाल हुआ। उसे ज़रा भी ग़ुस्सा न आया। वो फूटकर रोने लगा। इसमें कोई शक नहीं कि वो अपने फे़ल पर आप नादिम था।

भाई के आने से एक दिन पहले ही से उसका दिल हर दम धड़कता था कि देखूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सामने कैसे जाऊँगा। मैं उनसे कैसे बोलूँगा। मेरी आँखें उनके सामने कैसे उट्ठेंगी। उसने समझा था कि भैया मुझे बुला कर समझा देंगे। इस उम्मीद के ख़िलाफ़ आज वो उन्हें अपनी सूरत से बे-ज़ार पाता था। वो जाहिल था मगर उसका दिल कहता था कि भैया मेरे साथ ज़्यादती कर रहे हैं। अगर सिरी कंठ उसे अकेला बुला कर दो-चार मिनट सख़्त बातें कहते बल्कि दो-चार तमाँचे भी लगा देते तो शायद उसे इतना मलाल न होता। मगर भाई का ये कहना कि अब मैं उसकी सूरत से नफ़रत रखता हूँ। लाल बिहारी से न सहा गया।

वो रोता हुआ घर में आया और कोठरी में जा कर कपड़े पहने। फिर आँखें पोंछीं, जिससे कोई ये न समझे कि रोता था। तब आनंदी देवी के दरवाज़े पर आ कर बोला, “भाबी! भैया ने ये फ़ैसला किया है कि वो मेरे साथ इस घर में न रहेंगे। वह अब मेरा मुँह देखना नहीं चाहते। इसलिए अब मैं जाता हूँ। उन्हें फिर मुँह न दिखाऊँगा। मुझसे जो ख़ता हुई है उसे मुआफ़ करना।”

ये कहते-कहते लाल बिहारी की आवाज़ भारी हो गई।

(4)

जिस वक़्त लाल बिहारी सिंह सर झुकाए आनंदी के दरवाज़े पर खड़ा था। उसी वक़्त सिरी कंठ भी आँखें लाल किए बाहर से आए। भाई को खड़ा देखा तो नफ़रत से आँखें फेर लीं और कतरा कर निकल गए। गोया उसके साये से भी परहेज़ है।

आनंदी ने लाल बिहारी सिंह की शिकायत तो शौहर से की। मगर अब दिल में पछता रही थी। वो तबअन नेक औरत थी। और उसके ख़याल में भी न था कि ये मुआ'मला इस क़दर तूल खींचेगा। वो दिल ही दिल में अपने शौहर के ऊपर झुँझला रही थी कि इस क़दर गर्म क्यूँ हो रहे हैं। ये ख़ौफ़ कि कहीं मुझे इलाहबाद चलने को न कहने लगें, तो फिर मैं क्या करूँगी। उसके चेहरे को ज़र्द किए हुए थे। इसी हालत में जब उसने लाल बिहारी को दरवाज़े पर खड़े ये कहते सुना कि अब मैं जाता हूँ। मुझसे जो कुछ ख़ता हुई है मुआफ़ करना तो उसका रहा सहा ग़ुस्सा भी पानी हो गया। वो रोने लगी। दिलों का मैल धोने के लिए आँसू से ज़्यादा कारगर कोई चीज़ नहीं है।

सिरी कंठ को देखकर आनंदी ने कहा, “लाला बाहर खड़े हैं, बहुत रो रहे हैं।”

सिरी कंठ, “तो मैं क्या करूँ?”

आनंदी, “अंदर बुला लो। मेरी ज़बान को आग लगे। मैंने कहाँ से वो झगड़ा उठाया।”

सिरी कंठ, “मैं नहीं बुलाने का।”

आनंदी, “पछताओगे। उन्हें बहुत ग्लानि आ गई है। ऐसा न हो, कहीं चल दें।”

सिरी कंठ न उठे। इतने में लाल बिहारी ने फिर कहा, “भाबी! भैया से मेरा सलाम कह दो। वो मेरा मुँह नहीं देखना चाहते। इसलिए मैं भी अपना मुँह उन्हें न दिखाऊँगा।”

लाल बिहारी सिंह इतना कह कर लौट पड़ा। और तेज़ी से बाहर के दरवाज़े की तरफ़ जाने लगा। यका-यक आनंदी अपने कमरे से निकली और उसका हाथ पकड़ लिया। लाल बिहारी ने पीछे की तरफ़ ताका और आँखों में आँसू भर कर बोला, “मुझको जाने दो।”

आनंदी, “कहाँ जाते हो?”

लाल बिहारी, “जहाँ कोई मेरा मुँह न देखे।”

आनंदी, “मैं न जाने दूँगी।”

लाल बिहारी, “मैं लोगों के साथ रहने के क़ाबिल नहीं हूँ।”

आनंदी, “तुम्हें मेरी क़सम अब एक क़दम भी आगे न बढ़ाना।”

लाल बिहारी, “जब तक मुझे ये न मालूम हो जाएगा कि भैया के दिल में मेरी तरफ़ से कोई तकलीफ़ नहीं तब तक मैं इस घर में हरगिज़ न रहूँगा।”

आनंदी, “मैं ईश्वर की सौगंध खा कर कहती हूँ कि तुम्हारी तरफ़ से मेरे दिल में ज़रा भी मैल नहीं है।”

अब सिरी कंठ का दिल पिघला। उन्होंने बाहर आ कर लाल को गले लगा लिया। और दोनों भाई ख़ूब फूट-फूटकर रोए। लाल बिहारी ने सिसकते हुए कहा, “भैया! अब कभी न कहना कि तुम्हारा मुँह न देखूँगा। इसके सिवा जो सज़ा आप देंगे वो मैं ख़ुशी से क़ुबूल करूँगा।”

सिरी कंठ ने काँपती हुई आवाज़ से कहा, “लल्लू इन बातों को बिल्कुल भूल जाओ। ईश्वर चाहेगा तो अब ऐसी बातों का मौक़ा न आएगा।”

बेनी माधव सिंह बाहर से ये देख रहे थे। दोनों भाइयों को गले मिलते देखकर ख़ुश हो गए और बोल उठे, “बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं। बिगड़ता हुआ काम बना लेती हैं।”

गाँव में जिसने ये वाक़िआ' सुना, इन अल्फ़ाज़ में आनंदी की फ़य्याज़ी की दाद दी, “बड़े घर की बेटियाँ ऐसी ही होती हैं।”